Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--3




पार्वती चली गई। जब वह दूर चली गई-तब देवदास ने पुकारा-‘पत्तो।’ पार्वती ने सुनी-अनसुनी कर दी और भी जल्दी-जल्दी चलने लगी। देवदास ने फिर बुलाया-‘ओ पत्तो, जरा सुन जा!’

पार्वती ने जवाब नही दिया। देवदास ने विरक्त होकर थोड़ा चिल्लाकर आप-ही-आप कहा-जाकर मरने दो।

पार्वती चली गई। देवदास ने जैसे-तैसे करके दो-एक बंसी काट ली। उसका मन खराब हे गया था।

रोते-रोते पार्वती मकान पर लौट आई। उसके गाल के ऊपर छड़ी के नीले दाग की सांट उभर आई थी,

पहले ही उस पर दादी की नजर पड़ी। वे चिल्ला उठी-‘बार बे बाप! किसने ऐसा मारा है, पत्तो?’

आंख मीचते-मीचते पार्वती ने कहा-पंडितजी ने।’

दादी ने उसे लेकर अत्यंत कु्रद्ध होकर कहा-‘चल तो, एक बार नारायण के पास चले, वह कैसा पंडित है। हाय-हाय! बच्ची के एकदम मार डाला!’

पार्वती ने पितामही के गले से लिपटकर कहा-चल!’

मुखोपाध्यायजी के निकट आकर पितामही ने पंडितजी के मृत पुरखा-पुरखनियो को अनेको प्रकार से भला-बुरा कहकर तथा उनकी चौदह पीढ़ियो के नरक मे डालकर, अंत मे स्वयं गोविंद को बहुत तरह से गाली-गुफते देकर कहा-‘नारायण, देखो तो उसकी हिम्मत को! शूद्र होकर ब्राह्मण की कन्या के शरीर पर हाथ उठाता है! कैसा मारा है, एक बार देखोे! यह कहकर वृद्धा गाल के ऊपर पड़े हुए नीले दाग को अत्यंत वेदना के साथ दिखाने लगी।’

नारायण बाबू ने तब पार्वती से पूछा-‘किसने मारा है, पत्तो?’

पार्वती चुप रही। तब दादी ने और एक बार चिल्लाकर कहा-‘और कौन मारेगा सिवा उस गंवार पंडित के!’

‘क्यो मारा है?’

पार्वती ने इस बार भी कुछ नही कहा। मुखोपाध्याय महाशय ने समझा कि किसी कुसूर पर मारा है, लेकिन इस तरह मारना उचित नही। प्रकट मे भी यही कहा। पार्वती ने पीठ खोलकर कहा-‘यहां भी मारा है।’

पीठ के दाग और भी स्पष्ट तथा गहरे थे। इस पर वे दोनो ही बड़े क्रोधित हुए। ‘पंडितजी के बुलाकर कैफियत तलब की जाएगी।’ मुखोपाध्यायजी ने यही अपनी राय जाहिर की। इस प्रकार स्थिर हुआ कि ऐसे पंडित के निकट लड़के-लड़कियो को भेजना उचित नही।

यह निश्चित सुनकर पार्वती प्रसन्नतापूर्वक दादी की गोद मे चढ़कर घर लौट आयी। घर पहुंचे पर पार्वती माता की जिरह मे पड़ी। उन्होने बैठकर पूछा-‘क्यो मारा है?’

पार्वती ने कहा-‘झूठ-ही-मूठ मारा है।’

माता ने कन्या का कान खूब जोर से मलकर कहा-‘झूठ-मूठ कोई मार सकता है?’

उसी समय दालान से सास जा रही थी, उन्होने घर की चौखट के पास आकर कहा-‘बहू, मां होकर भी तुम झूठ-मूठ मार सकती हो और वह निगोड़ा नही मार सकता?’ बहू ने कहा-‘झूठ-मूठ कभी नही मारा है। बड़ी भली लड़की है, जो कुछ नही किया और उन्होने मारा!’

सास ने विरक्त होकर कहा-‘अच्छा यही सही, पर इसे मै पाठशाला नही जाने दूंगी।’

‘लिखना-पढ़ना नही सीखेगी?’

‘क्या होगा सीखकर बहू? एक-आध चिट्ठी-पत्री लिख लेना, रामायण-महाभारत पढ़ लेना ही काफी है। फिर तुम्हारी पत्तो को न जजी करनी है और न वकील होना है।’

अंत मे बहू चुप हो गई। उस देवदास ने बहुत डरते-डरते घर मे प्रवेश किया। पार्वती ने आदि अंत तक सारी घटना अवश्य ही कह दी होगी, इसमे उसे कोई संदेह नही था। परंतु घर आने पर उसका लेशमात्र भी आभास न मिला, वरन मां से सुना कि आज गोविंद पंडितजी ने पार्वती के खूब मारा है, इसी से अब वह भी पाठशाला नही जाएगी। इस आनंद की अधिकता से वह भली-भांति भोजन भी नही कर सका। किसी तरह झटपट खा-पीकर दौड़ा हुआ पार्वती के पास आया और हांफते-हांफते कहा-‘तुम अब पाठशाला नही जाओगी?’

‘नही।’

‘कैसे?’

‘मैने कहा कि पंडितजी मारते है।

देवदास एक बार हंसा, उसकी पीठ ठोककर कहा कि उसके समान बुद्धिमती इस पृथ्वी पर दूसरी नही है। फिर उसने धीरे-धीरे पार्वती के गाल पर पड़े हुए नीले दाग ही सयत्न परीक्षा कर, निःश्वास फेककर कहा-‘अहा!’

पार्वती ने थोड़ा हंसकर उसके मुख की ओर देखकर कहा-‘क्यो?’

‘बड़ी चोट लगी न पत्तो?’

पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-‘हूं!’

‘तुम क्यो ऐसा करती हो? इसी से तो क्रोध आता है और इसीलिए मारता भी हूं।’

पार्वत की आंखो मे जल भर आया। मन मे आया कि पूछे कि क्या करे परंतु पूछ नही सकी।

देवदास ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा-‘अब ऐसा कभी नही करना-अच्छा!’

पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-‘नही करूंगी।’

देवदास ने और बार पीठ ठोककर कहा-‘अच्छा, तब मै कभी तुमको नही मारूंगा।’

दिन पर दिन बीतता जाता था-और इन दोनो बालक-बालिकाओ के आनंद की सीमा नही थी। सारे दिन वे इधर-उधर घूमा करते थे, संध्या के समय लौटने पर डांट-डपट के अतिरिक्त मार-पीट भी खूब पड़ती थी। फिर सुबह होते ही घर से निकल भागते थे और रात को आने पर मारपीट और घुड़की सहते थे। रात मे सुख की नीद सोते; फिर सवेरा होते ही भागकर खेल-कूद मे जा लगते। इसका दूसरा कोई संगी-साथी न था, जरूरत भी नही थी। गांव मे उपद्रव और अत्याचार करने के लिए यही दोनो काफी थे। उस दिन आंखे लाल किए सारे तालाब को मथकर पंद्रह मछलियां पकड़ी और योग्यतानुसार आपस मे हिस्सा लगाकर घर लौटे। पार्वती की माता ने कन्या को मार-पीठकर घर मे बंद कर दिया। देवदास के विषय मे ठीक नही जानता; क्योकि वह इन सब बातो को किसी प्रकार प्रकट नही करता। जब पार्वती रो रही थी, उस समय दो या ढाई बजे थे। देवदास ने आकर एक बार खिड़की के नीचे से बहुत मीठे स्वर से बुलाया-‘पत्तो, ओ पत्तो! पार्वती ने संभवतः सुना, किंतु क्रोधवश उत्तर नही दिया। तब उसने एक निकटवर्ती चम्पा के पेड़ पर बैठकर सारा दिन बीता दिया। संध्या के समय धर्मदास समझा-बुझाकर बड़े परिश्रम से उसे उतारकर घर पर लाया।’

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